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जानिये सावन सोमवार की व्रत कथा, इस कथा के पढ़ने से मिलता है शुभ फल

श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव जी के व्रत रखा जाता हैं। श्रावण मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त जन तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव जी के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव जी के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं।

कथा –

अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था, जिसके पास धन की कोई कमी नहीं थी और समाज में लोग उसका सम्मान भी करते थे. लेकिन वह बहुत दुखी रहता था. उसकी कोई संतान नहीं थी। व्यापारी इस बात को लेकर अक्सर परेशान रहता कि उसकी कोई संतान नहीं है. उसके जाने के बाद उसकी संपत्ति का ध्यान कौन रखेगा. वह व्यापारी शिव भक्त था और हर सोमवार को नियम से भगवान शंकर की व्रत-पूजा करता था और शाम को मंदिर में दीया जलाता था।

उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- ‘हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है. कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है. भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें। भगवान शिव ने कहा कि मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है. लेकिन पार्वती जी नहीं मानी और कहने लगीं कि आपको अपने इस भक्त की इच्छा जरूर पूरी करनी चाहिए. भगवान शंकर ने पार्वती जी बात मान ली और कहा कि मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं. लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।

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उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के 16 वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई। भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया. व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा. कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ. पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं. बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया.

हालांकि व्यापारी को पुत्र-जन्म की ज्यादा खुशी नहीं हुई, क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था. यह रहस्य घर में किसी को मालूम नहीं था. व्यापारी के पुत्र का नाम अमर रखा गया। अमर के 12 साल के होने पर व्यापारी ने उसे अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए काशी भेज दिया. मामा और अमर वाराणसी के लिए निकल पड़े।

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अमर और मामा जी जहां, जहां पहुंचे उन्होंने गरीबों का दान दिया. चलते-चलते वे एक नगर में पहुंच गए. नगर की राजकुमारी का विवाह समारोह हो रहा था. दूल्हा एक आंख से काना था. लेकिन यह बात राजकुमारी और उनके परिवार को पता नहीं थी. दूल्हे के माता-पिता ने यह राज छुपा रखा था।

दूल्हे के माता-पिता को यह डर था कि अगर उनका बेटा राजकुमारी के सामने आया तो उनकी पोल खुल जाएगी और शादी टूट जाएगी. इसलिए उन्होंने अमर को कहा कि वह नकली दूल्हा बन जाए. अमर ने आग्रह मान लिया और दूल्हा बन गया. अमर की राजकुमारी से शादी हो गई. अमर राजकुमारी से यह सच्चाई छुपाना नहीं चाहता था, इसलिए उसने राजकुमारी की चुनरी पर सारी सच्चाई लिख दी. राजकुमारी वह खत पढ़कर हैरान रह गई. अब वह उस काने राजकुमार के साथ जाने को तैयार नहीं थी. राजकुमारी ने अमर से कहा कि वह उन्हीं की पत्नी है और शिक्षा पूर्ण कर वापस आने तक वह यहीं इंतजार करेगी।

मामा जी और अमर काशी चले गए. समय आगे बढ़ता रहा. अमर 12 साल का हो गया था और शिवलिंग पर बेल पत्तियां चढ़ा रहा था. तभी यमराज उसके सामने आकर खड़े हो गए. लेकिन इससे पहले ही भगवान शंकर अमर की भक्ति और नेक कार्यों से प्रसन्न होकर उसे दीर्घायु का वरदान दे चुके थे. यमराज को खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ा. काशी में अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद अमर अपनी पत्नी को लेकर घर लौट गया और सपरिवार खुशी-खुशी रहने लगा।

भगवान शिव की पूजा करना, कथा सुनना तथापुराणों का श्रवण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुत्सित विचारों का त्याग कर स्वभाव में नम्रता रखते हुए धैर्य निष्ठापूर्वक भागवत कथा का श्रवण करना चाहिए। ब्राह्मण की सेवा में विश्वास रखते हुए और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तपस्वी में लीन रहना चाहिए। इस मास का माहात्म्य सुनने मात्र से ही मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, इसलिए इसे श्रावण मास कहा जाता है। पूर्णमासी को श्रवण नक्षत्र का योग होने के कारण भी यह मास श्रावण कहलाता है। इस मास की संपूर्ण कला को केवल ब्रह्मा जी ही जानते हैं। इस मास के कुल तीस दिन व्रत व पुण्य कार्यों के लिए ही होते हैं। इसका अर्थ यह है कि इस मास की सारी तिथियां व्रत अथवा पुण्य कार्यों के लिए ही होती हैं।

मास की अंतिम तिथि पूर्णमासी को विसर्जन कर सभी स्त्रियां सबसे पहले अपने भाई को अपने जीवन की रक्षा हेतु रक्षाबंधन बांधती हैं। प्रथमा से अमावस्या तिथि तक किए जाने वाले उपवासों के देव देवियां भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रतिपदा को किए जाने वाले व्रत के देवता अग्नि, द्वितीया के ब्रह्मा, तृतीया की गौरी, चतुर्थी के विनायक, पंचमी के सर्प, षष्ठी के स्कंद, सप्तमी के सूर्य, अष्टमी के शिव, नौवीं की दुर्गा, दशमी के यम, एकादशी के विश्वेदेव, द्वादशी के हरि नारायण, त्रयोदशी के रतिपति कामदेव, चतुर्दशी के शिव, पूर्णमासी के चंद्रदेव और अमावस्या को किए जाने वाले व्रत के आराध्य पितर हैं।। श्रावण में शिव रुद्री के पाठ का विशेष महत्व है।

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